Saturday, 3 August 2019

सही दिशा से बदली दशा (जल संचयन का नया उपक्रम)


बहते पानी को मिली दिशा
और बदली झिरिया गांव के किसानों की दशा


       यह जान लेना जरुरी है कि धरती पर इंसान का अस्तित्व बनाए रखने के लिए पानी जरूरी है, तो पानी को बचाए रखने के लिए उसका संरक्षण एवं युक्तियुक्त उपयोग ही एकमात्र उपाय है। इस तरह पानी जुटाने के लिए जरूरी है कि स्थानीय स्तर पर पारम्परिक जल प्रणालियों को खेाजा जाए और उनको सुरक्षित रखते हुए उपयोग किया जाये। छत्तीसगढ़ के झिरिया गांव के ग्रामीणों ने भी पहाड़ी जंगल के तलहटी में प्राकृतिक रुप से बने झिरिया (जल स्त्रोत) से झर-झर कर बहते पानी को रोकने और उसे एक दिशा देकर बेहतर उपयोग करने का एक तरीका विकसित कर लिया गया है। इस तरीके से सहेजे गए पानी का इस्तेमाल रोजमर्रा के कामों और सिंचाई में तो हो ही रहा है, भू-जल स्तर भी धीरे-धीरे बढ़ रहा है। बहते पानी को रोकने, उसे एक दिशा देने और उपयोग करने की यह बातें उन मायनों में तब और अधिक प्रासंगिक हो जाती है, जब इसे आदिवासियों विशेषकर बैगा जनजाति यानि माननीय राष्ट्रपति के दत्तकपुत्र का दर्जा प्राप्त विशेष पिछड़ी जनजाति के लोगों के द्वारा मिलकर किया गया हो।


छत्तीसगढ़ राज्य के मुंगेली जिले के लोरमी विकासखण्ड मुख्यालय से 25 किलोमीटर दूर पहाड़ और जंगल की तलहटी में बसे झिरिया गांव के आदिवासी ग्रामीणों विशेषकर बैगा जनजाति परिवारों ने ग्राम पंचायत के साथ मिलकर पहले तो प्राकृतिक झिरिया के वर्षों से यूँ ही बह रहे पानी को चेक डेम बनाकर रोका, फिर उसे पक्की नाली बनाकर बहाव की एक निश्चित दिशा दे दी। इसके बाद इसे गांव के ही सामुदायिक तालाब से जोड़ कर पानी को सहेज लिया। इसके अलावा नाली के समीप स्थित खेत-खलिहानों
तक सिंचाई के लिए पानी पहुँचाने के उद्देश्य से गांव के ही 28 किसानों ने अपनी खेती जमीन पर बनी डबरियों को इस नाली से जोड़ लिया। अब इन डबरियों में बारह महीनों झिरिया का पानी रहने से सिंचाई के लिए पानी की समस्या से मुक्ति मिल गई है। इस प्रकार न केवल मिट्टी का कटाव और झिरिया के माध्यम से पहाड़ों में संचित होकर रिसता वर्षाजल का नुकसान रुका, बल्कि खेतों को भी पानी मिला। ग्रामीणों एवं ग्राम पंचायत का यह प्रयास, अब पूरे गांव के लिए संजीवनी बन गया है।

वर्षों से झिरिया के यूं ही बहते पानी को रोककर दिशा देने और उससे किसानों की दशा को बदलने का सपना देखने वाले गांव के उपसरपंच श्री नरेश तिलगाम कहते हैं, "इस झिरिया का पानी जमीन की ढाल के हिसाब से यूँ ही बह कर गांव से बाहर चला जाता था। मैं अक्सर इसे रोकने और तालाब में ले जाकर एकत्र करने के बारे में सोचता था। एक दिन गांव के सरपंच श्री बबलू जी से इस संबंध में विस्तार से चर्चा की, तब उन्होंने जनपद पंचायत एवं जिला पंचायत के अधिकारियों से इस संबंध में योजना बनाकर संसाधन उपलब्ध कराने को कहा। साल 2018-19 में जिला प्रशासन का सहयोग मिला और महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना एवं जिला खनिज न्यास निधि के परस्पर तालमेल से पानी बचाने और उसे उपयोग करने की यह योजना बनी, फिर जो बदलाव आया वो आपके सामने है।"


ग्राम पंचायत के सरपंच श्री बबलू यादव ने इस संबंध में बताया कि उपसरपंच तिलगाम ने झिरिया के बहते प्राकृतिक जल को रोकने और उसके उपयोग को लेकर हुये इन कार्यों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इन्होंने सबसे पहले सभी ग्रामीणों को इसके लिए तैयार किया, जो कि सबसे बड़ा चुनौतीपूर्ण काम था। क्योंकि ग्रामीणजन मान्यताओं के कारण झिरिया के आस-पास निर्माण के लिए मना कर रहे थे। काफी समझाने के बाद सबकी सहमति से झिरिया से लगभग 100-150 मीटर की दूरी पर निर्माण कार्य शुरु करने बात बनी। इसके बाद महात्मा गांधी नरेगा और डी.एम.एफ. (जिला खनिज न्यास निधि) के अभिसरण से लूज बोल्डर चेक डेम, स्थाई चेक डेम व डाइवर्सन वेयर निर्माण, पक्की नाली एवं डबरी बनवाने की स्वीकृति प्राप्त की गई।

पहाड़ की तलहटी पर तीन स्थानों पर बने प्राकृतिक झिरिया से आने वाला पानी का ढलान गांव की ओर है। इस वजह से यह अपने साथ मिट्टी को भी बहा कर ले आता है। इसलिये नौ अलग-अलग स्थानों पर छोटे-छोटे पत्थरों से लूज बोल्डर चेक डेम (एल.बी.सी.डी.) बनाए गए। इससे बहते जल की गति धीमी हो गई और उसका ठहराव होने लगा। बारिश की वजह से झिरिया के पानी का बहाव तेज होने पर भी, ये एल.बी.सी.डी. पानी के बहाव को कम करने में मददगार सिद्ध हो रहे हैं। इससे मिट्टी के कटाव में कमी आई है। जनपद पंचायत के कार्यक्रम अधिकारी श्री अशोक कुमार साहू बताते हैं कि इनका निर्माण महात्मा गांधी नरेगा से किया गया है। इसके लिए स्थानीय स्तर पर उपलब्ध पत्थरों का ही उपयोग किया गया। इससे लागत में भी कमी आई।

श्री अशोक ने आगे बताया कि लूज बोल्डरों (पत्थरों) से बनाये गये चेक से झिरिया के पानी के बहाव को कम करने के बाद पानी को संचित कर उसे एक दिशा देने के लिए डी.एम.एफ. की राशि से चेक डेम एवं डाइवर्सन वेयर (उल्ट) का निर्माण कराया गया। बहते पानी को दिशा देने के बाद, उसे सामुदायिक तालाब तक पहुँचाने के लिए महात्मा गांधी नरेगा से 975 मीटर लम्बी पक्की नाली का निर्माण कराया गया। नाली के बनने के बाद से तालाब में अब बारह महीनों पानी रहता है। झिरिया के पानी के साथ-साथ
बारिश के समय पहाड़ों से होकर आने वाला पानी भी तालाब में संचित हो रहा है। तालाब की लंबाई, चौड़ाई और गहराई के हिसाब से इसमें लगभग 6 हजार 500 क्यूबिक मीटर पानी एकत्र हो जाता है। इस पानी का उपयोग ग्रामीण निस्तारी (दैनिक जरुरतों) के अलावा सिंचाई और मछलीपालन के लिए भी कर रहे हैं। यहाँ मछलीपालन का कार्य स्व सहायता समूह की महिलाओं के द्वारा किया जा रहा है। इससे उन्हें आजीविका का एक साधन भी गाँव में ही मिल गया है।

झिरिया के पानी को सहेजने के कार्य में तकनीकी मार्गदर्शन देने वाले तकनीकी सहायक श्री चंद्रप्रकाश कश्यप कहते हैं कि जल संरक्षण के कामों के बाद गांव में बैठक लेकर ग्रामीणों को खेतों में डबरी निर्माण के फायदों के बारे में समझाया गया। इससे 59 आदिवासी किसान तैयार हुये। प्रथम चरण में इनमें से 28 हितग्राहियों के खेतों में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना से डबरियाँ बनवाई गई। प्रत्येक डबरी में लगभग 900 क्यूबिक मीटर पानी एकत्र हो रहा है। इस प्रकार 28 डबरियों में कुल मिलाकर लगभग 25 हजार 200 क्यूबिक मीटर पानी संग्रहित हो जाता है। इन डबरियों को महात्मा गांधी नरेगा से बनी पक्की नाली के साथ इस प्रकार जोड़ा गया कि अब डबरियों में पानी बारह महीनों रहता है। किसानों के द्वारा चेक डेम से नाली द्वारा आ रहा झिरिया के पानी को आवश्यकतानुसार रोककर, उसे अपनी डबरी एवं खेत में ले जाकर सिंचाई और मछलीपालन किया जा रहा है। डबरी बनने के बाद मछलीपालन कर बाजारु बैगा ने 8 हजार, लौहार सिंह बैगा ने 17 हजार, नरेश कुमार तिलगाम ने 17 हजार 5 सौ, जानहू बैगा ने 6 हजार, मुन्ना गौंड ने 35 हजार, और रामभू बैगा ने 12 हजार रुपये कमाये। डबरियों के निर्माण के दौरान भी ग्रामीणों को जहाँ महात्मा गांधी नरेगा से मजदूरी मिली, वहीं खरीफ के साथ-साथ रबी की फसल लेने के लिये साधन भी मिल गया है। पहले ये सभी 28 किसान कुल मिलाकर लगभग 362.29 क्विंटल धान ही ले पाते थे, किन्तु डबरी व नाली निर्माण के बाद ये लगभग 905.40 क्विंटल धान की पैदावार ले रहे हैं।

श्री कश्यप ने आगे बताया कि योजनांतर्गत चयनित 59 हितग्राहियों को लगभग 100 हेक्टेयर भूमि का वन अधिकार पट्टा प्रदाय किया गया है। बारहमासी सिंचाई के साधन मिलने के बाद, पशुओं से इनकी खेती-बाड़ी को सुरक्षा प्रदान करने के लिए सम्पूर्ण भूमि की फेंसिग की गई है। अब ये किसान जंगली-जानवरों विशेषकर जंगली सुअरों से निश्चिंत होकर किसानी कर पा रहे हैं।

आदिवासी किसान श्री मुन्ना सिंह तिलगाम कहते हैं-"मनरेगा से डबरी बनी, तो पानी भरा। उसमें मैं मछली बीज डाला। अभी मछलीपालन कर रहा हूँ और परिवार के साथ मछली का स्वाद भी ले रहा हूँ। जब मछली ओर बड़ी हो जाएंगी, तो इन्हें बाजार में बेचूंगा। पहले मैं सिर्फ 10 से 15 बोरा धान ही ले पाता था, लेकिन अब डबरी बनने के बाद साल 2018-19 में पहली बार 40 से 50 बोरा धान लिया हूँ। बारिश के बाद डबरी में भरे हुए पानी से खेत में सिंचाई की थी।"


वहीं श्री श्याम सिंह तिलगाम का कहना है- "मैंने डबरी से अरहर लगाया था। लगभग 2 बोरा अरहर हुई और इस साल फिर मैं अरहर ही लगाऊँगा। ग्राम पंचायत में हुए इन कामों से अब अब पलायन पूरी तरह रुक गया है।"

झिरिया का बहता पानी जहाँ ग्राम पंचायत झिरिया का नाम सार्थक कर रहा है, वहीं जल संचय को मिली सही दिशा और इन आदिवासी किसानों की मेहनत ने गाँव की दशा ही बदल दी है।




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रिपोर्टिंग व लेखन - श्री संदीप सिंह चौधरी प्रचार प्रसार अधिकारी, महात्मा गांधी नरेगा राज्य कार्यालय, नवा रायपुर अटल नगर, जिला-रायपुर, छत्तीसगढ़।
तथ्य व स्त्रोत-         श्री विनायक गुप्ता, सहायक परियोजना अधिकारी, जिला पंचायत-मुंगेली, छत्तीसगढ़ एवं  
                             श्री अशोक कुमार साहू, कार्यक्रम अधिकारी, जनपद पंचायत-लोरमी, जिला-मुंगेली।
संपादन -               श्री आलोक कुमार सातपुते, प्रकाशन शाखा, विकास आयुक्त कार्यालय, इंद्रावती भवन, नवा रायपुर अटल नगर, जिला-रायपुर, छत्तीसगढ़।
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